क्या आप जानते हैं कि मक्का के मुशरिक, यानी अल्लाह के साथ शिर्क करने वाले लोग, अल्लाह के पैग़ाम को किस बहाने से ठुकरा देते थे? यह बहाना इतना कमज़ोर था कि खुद कुरआन में इसकी सख़्त मुज़म्मत (बुराई) की गई है।
सवाल: मक्के के मुशरिक अल्लाह की हिदायत को किस बहाने से इंकार कर देते थे?
- A. हम तो बाप-दादा के दीन पर ही चलेंगे
- B. इस्लाम बहुत मुश्किल दीन है
- C. हमारा दीन इस्लाम से बेहतर है
- D. इंशाअल्लाह इल्म हासिल करेंगे
सही जवाब है: ऑप्शन A , हम तो बाप-दादा के दीन पर ही चलेंगे
तफ़सील (विवरण):
दलील (सबूत)
अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त मुशरिकों की ज़िद और हटधर्मी बयान करते हुए क़ुरान में फ़रमाता है:
“और जब मुशरिकों से कहा जाए कि अल्लाह के उतारे (हिदायत) पर चलो, तो कहेंगे: हम तो उसी पर चलेंगे जिस पर हमने अपने बाप-दादा को पाया, अगरचे उनके बाप-दादा ना कुछ अक़्ल रखते हों और ना हिदायत।”
हमारी ज़िंदगी और सबक़
अफ़सोस की बात है कि आज हमारा मामला भी कुछ ऐसा ही है। हम भी अपने आबा-ओ-अज़दाद के तरीक़ों को किताबो-सुन्नत पर तरजीह (प्राथमिकता) दे रहे हैं। जब कोई हमसे कुरान और हदीस की बात करता है, तो उसका मज़ाक उड़ाया जाता है।
अल्लाह के लिए: जब कोई क़ुरान और हदीस की तरफ़ हमें बुलाए तो ग़ौर से उसकी बातें सुनें। कहीं हम ला-इल्मी (अज्ञानता) में उस हद तक आगे ना बढ़ जाएं जो हमारी मुसीबत और बर्बादी का सबब (कारण) बन जाये।
इस बारे में अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त क़ुरान में फ़रमाता है:
“और तुम पर जो मुसीबत आती है वो तुम्हारे ही हाथों के किए हुए कामों से आती है, जबकि वो (अल्लाह) बहुत से गुनाह माफ़ भी फ़रमा देता है।”
तो बहरहाल जब भी कोई किताबो-सुन्नत की हमें दावत दे, तो हमें चाहिए कि उस पर ग़ौर करें और तास्सुब (पक्षपात) के चश्मे उतारकर महज़ हक़ की तरफ़ रुजू करें।
दुआ
इंशाह-अल्लाह-उल-अज़ीज़!
अल्लाह तआला हमें हक़ सुनने, समझने और उस पर अमल की तौफ़ीक़ दे। हमें किताबो-सुन्नत का मुत्तबे (पैरवी करने वाला) बनाए। जब तक हमें ज़िंदा रखे, इस्लाम और ईमान पर ज़िंदा रखे। ख़ातमा हमारा ईमान पर हो।
व आख़िरु द’वाना अनिलहम्दुलिल्लाहे रब्बिल आलमीन